Move to Jagran APP

वाराणसी के ज्ञानवापी में वर्ष 1936 में मांगा गया था परिसर में नमाज पढ़ने का अधिकार

वर्ष 1936 में पूरे ज्ञानवापी परिसर में नमाज पढऩे के अधिकार को लेकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ वाराणसी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में मुकदमा दायर किया गया था। दावेदारों की ओर से सात ब्रिटिश सरकार की ओर से 15 गवाह पेश हुए थे।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Mon, 12 Apr 2021 07:50 AM (IST)Updated: Mon, 12 Apr 2021 07:50 AM (IST)
वाराणसी के ज्ञानवापी में वर्ष 1936 में मांगा गया था परिसर में नमाज पढ़ने का अधिकार
1936 में पूरे ज्ञानवापी परिसर में नमाज पढऩे के अधिकार को लेकर ट कोर्ट में मुकदमा दायर किया गया था।

वाराणसी, जेएनएन। ज्ञानवापी परिसर को लेकर पुरातात्विक सर्वेक्षण के जरिए भले ही अब नीर-क्षीर विवेचन की बात की जा रही हो, लेकिन परतंत्र भारत में भी इससे संबंधित मुकदमा कोर्ट में चल चुका है। वर्ष 1936 में पूरे ज्ञानवापी परिसर में नमाज पढऩे के अधिकार को लेकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में मुकदमा दायर किया गया था। दावेदारों की ओर से सात, ब्रिटिश सरकार की ओर से 15 गवाह पेश हुए थे। सब जज बनारस ने 15 अगस्त 1937 को मस्जिद के अलावा ज्ञानवापी परिसर में नमाज पढऩे का अधिकार नामंजूर कर दिया था। हाईकोर्ट ने 10 अप्रैल 1942 को सब जज के फैसले को सही ठहराते हुए अपील को निरस्त कर दी थी। इसका उल्लेख एआइआर (29) 1942 एएलएएबीएडी 353 में भी है। पुरातात्विक सर्वेक्षण की मांग को लेकर वाद मित्र विजय शंकर रस्तोगी ने इससे संबंधित कागजात भी साक्ष्य के तौर पर न्यायालय में पेश किए थे। कागजात बताते हैैं कि 1936 में चले मुकदमे में बयान तो प्रो. एएस अल्तेकर व महाराजा बनारस के तत्कालीन मंत्री रमेश चंद्र डे समेत कई लोगों के हुए लेकिन बीएचयू से जुड़े रहे यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष प्रो. परमात्मा शरण की गवाही अहम रही।

prime article banner

14 मई 1937 को अतिरिक्त सिविल जज बनारस की अदालत (वाद संख्या 62- 1936) में प्रतिवादी संख्या एक ब्रिटिश सरकार की ओर से प्रो. परमात्मा ने बतौर साक्षी बयान में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से प्रोविंशियल गवर्नमेंट आफ मुगल्स पर किए गए शोध का हवाला दिया। औरंगजेब के दरबार के इतिहास लेखक मुश्तैद खां द्वारा लिखित 'मा आसिरे आलम गिरि भी पेश किया तो पुरातात्विक दृष्टि से आंखों देखी का भी जिक्र किया।

इसमें उन्होंने पुरातात्विक दृष्टि से बताया है कि यह 16वीं शताब्दी के अंतिम चरण में एक मंदिर था। इसके समान एक मंदिर राजा मान सिंह ने इसी काल में वृंदावन में बनवाया जो गोविंद देव मंदिर के नाम से ज्ञात है। वह भी समान शैली में बना है जिसका चित्र पृष्ठ 26 पर पुरातात्विक सर्वे ऑफ इंडिया में दिया गया है। उसमें दोनों मंदिरों में ढांचागत समानता का भी जिक्र किया गया है। प्रो. परमात्मा ने बाद में किए गए बदलाव, ङ्क्षहदू चिह्न, गुंबद, निर्माण सामग्री में अंतर की भी कालक्रम का उल्लेख करते हुए जानकारी दी।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.
OK